सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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तुमपे अर्पण है ये मन....!!!

सपनों को मेरे दिया तुमने
इंद्रजाल सा सम्मोहन 
आंसू की सृष्टि रच डाली मेरी आँखों में 
अधरों ने किया ख़ामोशी का आलिंगन 
गीत दिए थे तुमने ही इन लबों पर 
रंगों से भर दिए थे मन 
शब्दों के संसार में विचरण
तुमसे ही मेरे हमदम 
मेरे भ्रम की तुम हो हक़ीकत
मेरे रूह की तुम ज़रूरत 
खंड खंड में हो अखंड 
जल उठते हो मुझमे प्रचंड 
बादल कोई गलता नही 
ज्वाला ये बुझती नही 
तेरा ज्ञान मेरा भ्रम 
इनमें बस  इक
मेरा प्रेम चेतन 
नही जानती पाप और पूण्य
तुमपे अर्पण है यह मन 
तुमपे अर्पण है ये मन 



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3 comments:

Unknown said...

वाह, अति सुंदर चरितार्थ किया हैं आपने🙆

Unknown said...

बेहतरीन .........

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (22-11-2014) को "अभिलाषा-कपड़ा माँगने शायद चला आयेगा" (चर्चा मंच 1805) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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