सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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मिली सज़ा मुझे धर्म की~!!!

बंधी तेरे संग सजन
इक डोर है अंजान सी
न टूटे न  छूटे ये तो
बंधन मज़बूत इस प्यार की
तिरस्कार की अग्नि में
जली हूँ मैं कई बार जी
घुट घुट कर जी लूंगी अब
मुझे कसम है तेरे प्यार की
आऊँ न अब पास तेरे मैं
तन्हा तन्हा ही रहूँ
ख़ुश रह तूं दुनियाँ में अपने
मैं चली ले,गठरी तेरे यादों की
बिन फेरों के ब्याह रचा के
मांग तेरे नाम सज़ा के
जीती रही मैं बनके तेरी
सदियों तलक़ हथेलियों के
रेखा में अपनी तुझे छुपाके
प्यार को अपना धर्म मान के

सिसकती रही पल पल मैं

मुस्कान को चेहरे पे सज़ा के

मुझे मिली सज़ा इस चाहत की

मुझे मिली सज़ा इस प्यार की___|||#बसयूँही

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4 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-11-2015) को "कलम को बात कहने दो" (चर्चा अंक 2150) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

निभा said...

आभार आदरणीय शास्त्री जी चर्चा मंच में शामिल करने हेतु____

Onkar said...

सुन्दर रचना

निभा said...

धन्यवाद् ओंकार जी :)

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