सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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क्यूँ____

क्यूँ आंखे वो मुझे लुभाती
क्यूँ मंत्र मुद्ध मैं हो जाती हूँ
भ्रम संदेहों को
निकाल हृदय से
क्यूँ भाव समर्पण से
भर जाती हूँ
भटकता मन निर्जन वन में
क्यूँ आँसू छलकाता है
क्यूँ याद कर उसे ये दिल
कभी रोता है मुस्काता है
क्यूँ हूक सी उठती है दिल में
क्यूँ आस का पंछी रोता है
जो नही मेरा देख उसे दिल
क्यूँ रह रह आहें भरता है
वो खुश है दुनियां में अपनी
दिल बैचेन मेरा क्यूँ रहता है
क्यूँ देखने को सूरत उसकी
आँखों का काजल पिघलता है
क्यूँ खेलता है दिल से कोई
क्यूँ पत्थर दिल कोई होता है
सोचता है अक़्सर मन ये मेरा
क्यूँ लेकर खुशियां प्रेम
दर्द हमे दे जाता है__|||

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3 comments:

Malva Aajtak said...

very nice nibha ji

निभा said...

धन्यवाद 😊

Onkar said...

सुन्दर रचना

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