सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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सफ़र__

ट्रेन में
खिड़की वाली
सीट पर बैठी
पीछे छुटते हुए तमाम
दृश्य को अपनी
आँखों में बसा लेने के
प्रयास में चली जा रही हूँ,
कहाँ? नही मालूम
कब तक? पता नही
पर  जा रही हूँ, दृश्य सारे
बड़ी तेजी से ओझल होते
जा रहे हैं, मष्तिक उन
दृश्यों को याद नही रख
पा रहा___
इन दिनों
बहुत भूलने लगी हूँ
इक खालीपन सा लिए
मन मेरा इंतजार में है
उस टीटी के जो आकर
मेरा पीठ थपथपाए और
कहे,मैडम आपका स्टेशन
आ गया प्लीज उतर जाएं__|||#बसयूँही

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7 comments:

radha tiwari( radhegopal) said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (18-07-2018) को "समय के आगोश में" (चर्चा अंक-3036) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी

निभा said...

बहुत बहुत आभार आपका 💐

दिगम्बर नासवा said...

बहुत ख़ूब ...
मन की स्थिति जब ढलान पे हो तो ऐसा जी होता है ...
गहरी रचना ..

निभा said...

आभार 🙏

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति

सुशील कुमार जोशी said...

जीवन का सत्य । सुन्दर।

निभा said...

बहुत बहुत आभार आप सभी का💐

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