सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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निशब्द.....!!!!

में पागल हूँ.. भूल जाती हूँ अपने अस्तित्व को... खो जाती हूँ तुम में... तुमसे अपेक्षा करने लगती हूँ... छोटी छोटी सी इच्छा कब पंख फैला देती है अहसास ही नहीं होता..... सपनों की दुनिया को हकिकत समझ ना जाने कितनी जिंदगी जी लेती हूँ मैं.... लेकिन तुम्हारी एक उपेक्षा मुझे हाथों में आयना लिये नज़र आता है... बड़ी बेदर्दी से वो मुझे सच दिखाता है..... और मेरी चेहरे की हँसी कब आँखो से बहने लगती है.... बिना किसी सुचना के.... लगातार बहती जाती ..... निष्प्राण सी महसूस करने लगती हूँ....... सारी हकिकत सारे सपने किसी शून्य की तरह घुमती दिखती है..... जहाँ खुदको समझाने के लिये भी शब्द नही मिलते.... घण्टों पड़ी रहती हूँ.. बसयूँही निशब्द.....


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2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अच्छी रचना।

Unknown said...

बहुत अच्छा व्याख्यान उपेक्षा का ।।✌

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