सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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अहसासों की गठरी लिए हर आदमी....!!!

अपने ही अहसासों क बोझ से...बेहाल आदमी
कौन समझे किसके अहसास...है व्यस्त आदमी
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गमगीन सा हो उठा मंज़र
            हँस रहा था यूँ दर्द ए दिल
जैसे हो आखरी ये सफ़र.....

अहसासों की गठरी लिए
           हर इन्सां गुज़रता रहा
दिल के क़रीब से
        सहेज़ सहेज़ उन अहसासों को
एक अहसास दम तोड़ता रहा
          बड़े ही ख़ामोशी से.....

दर्द की इन्तेहाँ हो गई
       जब सच बेज़ुबां हो गई
झूठ फ़रेव की नगरी में
    तड़प तड़प इक वफ़ा मर गई.....

काटों की सेज़ पे
    फूलों का अहसास लिए
वो सोई रही सुकूं से
         दुःख में भी हँसती रही
दर्द उसके मन का पर
किसी ने जाना...!!!

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2 comments:

निभा said...

शुक्रिया सर....!!!

Unknown said...

बहुत खुब 🙆 जी।

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