डूबा था गहन अंधकार में.........कमरे का कोना कोना...........गुम हो गए थे कही............... मन के
सारे भाव ......................चीरते हुए रात्रि के कालिख़ को.............लगी थी
दोनों ऑंखें अथाह कोशिश में.......................निहारने अपने आसपास बनते बिगड़ते
कुछ परछाइयों को...................नाकाम होती कोशिशें....................मज़बूर हो
करवटों पे करवटें बदलते.....................
वक़्त को बस यूँही मौन अडिग महसूस कर.............उसे जल्द गुज़र जाने की......गुहार
करता मन....................
ज़िद्दी वक़्त का अड़ जाना.........अकसर ऐसे ही मौकों पर होता है शायद.......होती है
जब रात गहरी.........................
नही आती नींद...................होती है उसकी भी
कोई मज़बूरी...................
दिल बुझा सा जाता है..............ख़ामोशी यूँ पसर जाता है.............अपना पराया
कोई नहीं होता पास................
मिट जाती हैं सारी आस.................वक़्त.......वक़्त को होता है बस
ऐसे ही मौकों की तलाश...............आके ठहर सा जाता है........ना जाने की जिद्द लिए........कर लें लाख कोशिश..............इसे भगाने की............ये अड़ा रहता है ज़िद्द पे.............. होके
सिर पे सवार..................उलझा सा मन और ये रात्रि गहन...........ऐसे में होले से
इक हवा का झोंका................और.......खिड़की के परदे का ज़रा सा सरक जाना.......मुस्कराहट लिए
चाँद की चांदनी का कमरे में दाख़िल होना.............खिड़की के उस पार मुस्कुराता वो चाँद.......कमरे में
थिरकना चांदनी का.................
परछाइयाँ खो गयी...........कुछ भाव नये ज़ाग उठें.............वक्त की
सरसराहट........जल्द गुज़र जाने की अकुलाहट.........बसयूँही.....
पल में आशा...पल में निराशा......जीवन बस एक तमाशा....!!!
सारे भाव ......................चीरते हुए रात्रि के कालिख़ को.............लगी थी
दोनों ऑंखें अथाह कोशिश में.......................निहारने अपने आसपास बनते बिगड़ते
कुछ परछाइयों को...................नाकाम होती कोशिशें....................मज़बूर हो
करवटों पे करवटें बदलते.....................
वक़्त को बस यूँही मौन अडिग महसूस कर.............उसे जल्द गुज़र जाने की......गुहार
करता मन....................
ज़िद्दी वक़्त का अड़ जाना.........अकसर ऐसे ही मौकों पर होता है शायद.......होती है
जब रात गहरी.........................
नही आती नींद...................होती है उसकी भी
कोई मज़बूरी...................
दिल बुझा सा जाता है..............ख़ामोशी यूँ पसर जाता है.............अपना पराया
कोई नहीं होता पास................
मिट जाती हैं सारी आस.................वक़्त.......वक़्त को होता है बस
ऐसे ही मौकों की तलाश...............आके ठहर सा जाता है........ना जाने की जिद्द लिए........कर लें लाख कोशिश..............इसे भगाने की............ये अड़ा रहता है ज़िद्द पे.............. होके
सिर पे सवार..................उलझा सा मन और ये रात्रि गहन...........ऐसे में होले से
इक हवा का झोंका................और.......खिड़की के परदे का ज़रा सा सरक जाना.......मुस्कराहट लिए
चाँद की चांदनी का कमरे में दाख़िल होना.............खिड़की के उस पार मुस्कुराता वो चाँद.......कमरे में
थिरकना चांदनी का.................
परछाइयाँ खो गयी...........कुछ भाव नये ज़ाग उठें.............वक्त की
सरसराहट........जल्द गुज़र जाने की अकुलाहट.........बसयूँही.....
पल में आशा...पल में निराशा......जीवन बस एक तमाशा....!!!
5 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (23-11-2014) को "काठी का दर्द" (चर्चा मंच 1806) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शुक्रिया...चर्चा मंच में शामिल करने हेतु आभार आपका...!!!
भावपूर्ण रचना....... हार्दिक बधाई !!!
धन्यवाद आपका...!!!
बहुत सुंदर 🙆
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