शरीर की थकान जरा देर को आराम कर मिट जाता है____लेकिन इस मन की थकान का क्या किया जाये____दूर कहीं किसी वीराने में बस एक दिन को पनाह ढूंढता ये मन रोना चाहता है जी भर_____जहाँ न हो किसी सवाल का डर इक ऐसी जगह जाना चाहता है____बहुत थक चूका है ये मन अब इससे नही होता अभिनय अब इसे छुप छुपकर घुटकर आँसू बहाने से नही मिलता आराम____उसे चाहिए वो जगह जहाँ वो चीख़ सके दहाड़े मारकर रो सके____ताकि वह होकर तरोताज़ा फिर से लौट सके उस दुनिया में जहाँ दे सके कहानी को अंजाम अपने अभिनय से_____तन्हा होके भी तन्हा न होना जहर पीकर जिंदा रहना किस कदर टूट जाता है मन कभी महसूस तुम भी करके देखना____________________________किसी के बिना कोई काम नही रुकता बार बार इस बात को वह ख़ुदसे कहती रहती है जबसे उसने अपने अंदर हो रहे बदलाव को महसूस किया है_______उसकी पकड़ अब ढ़ीली पड़ती जा रही है_______नही वह डर नही रही उसे बस फ़िक्र है कुछ अधूरे कामों का_____लोग जिंदगी जीते हैं वो सारी ज़िंदगी मौत को जीती रही_____जिस सुक़ून भरी नींद को वो तरसती रही उम्र भर वह नींद उसे अपने करीब आती हुई महसूस होने लगी है______और उसकी आख़री ख़्वाइस उसे बेचैन किये हुए है जिसे अंजाम भी उसे खुद ही देना है________|||#क्रमशः #बसयूँही
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1 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-12-2016) को पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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