वह बेज़ान पड़ी घूर रही है
घर की दीवारों को
कभी छत को कभी उस छत से
लटक रहे पंखे को
उसकी नजरें तलाश रहीं है आज
उन नजरों में परवाह जरा सी
अपने लिए
जिनकी परवाह को वह
खुदको बिसार गई
वो ढूंढ रही है उनकी बातों में
ज़िक्र जरा सी अपने लिए
जिनकी फ़िक्र कर वह
दिन रात मरती रही,
अंतः
कुछ न मिला कहीं उसे
घूँट आंसुओं की पीती रही
खाली हाथों की लकीरों को देख
बस यूँही मुस्कुराती रही
दीवारों से करके बातें दिल की
बोझ दिल का कम करती रही__|||#बसयूँही
घर की दीवारों को
कभी छत को कभी उस छत से
लटक रहे पंखे को
उसकी नजरें तलाश रहीं है आज
उन नजरों में परवाह जरा सी
अपने लिए
जिनकी परवाह को वह
खुदको बिसार गई
वो ढूंढ रही है उनकी बातों में
ज़िक्र जरा सी अपने लिए
जिनकी फ़िक्र कर वह
दिन रात मरती रही,
अंतः
कुछ न मिला कहीं उसे
घूँट आंसुओं की पीती रही
खाली हाथों की लकीरों को देख
बस यूँही मुस्कुराती रही
दीवारों से करके बातें दिल की
बोझ दिल का कम करती रही__|||#बसयूँही
2 comments:
बहुत सुन्दर
सार्थक लेखन.....अंतरराष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉग दिवस पर आपका योगदान सराहनीय है. हम आपका अभिनन्दन करते हैं. हिन्दी ब्लॉग जगत आबाद रहे. अन्नत शुभकामनायें. नियमित लिखें. साधुवाद
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
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