सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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भ्रमजाल

न जगी हूँ
न सोई हूँ
मैं बीच
भवँर में
खोई हूँ
हे ईश्वर
मेरे तारण हार
धूप, अगरबत्तियों
का नशा त्याग
अब होश में आ
मुझे मोक्ष दिला
मैं भ्रमजाल में
उलझी हूँ____

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2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सब उलझे हैं :)
अच्छी रचना।

निभा said...

धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी बहुत शुक्रिया आपका सुशिल जी 🙏

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