सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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टूटी_फूटी_औरतें 2

वो लिखना चाहती है हर उस दर्द को जो वह बिना उफ़्फ़ किये मुस्कुराहट का मुखोटा पहन सहती रही____भीतर ही भीतर टूटती रही रिश्तों के भीड़ में तन्हा तन्हा घुटती रही___वह उतार देना चाहती है पन्नों पर उन अहसासों को जिसने उसे बनाकर कमजोर खोकला कर दिया____वो अक़सर रातों को उठ बैठती है लिखने को जब फ़र्ज़ सारा उसका सो रहा होता है
वो वही होती है जब दूसरा कोई नही होता है_____सम्भाल पन्नों को कलम वह उठाती है____अतीत की गलियों में फिर वो पहुँच जाती है_____उसे दिखती है अपनी माँ जहाँ ममता का कोई निशां नही वहीं दीखते हैं उसे पिता भी____नाम के आगे स्नेह का जहाँ कोई औकात नही_______वो बढ़ जाती है आगे लेकिन कदम दो बढ़ाते ही उसे दीखता है एक मंडप___मासूम मन उसका सोचता है कभी खुदको तो कभी अपने आसपास तलाशता है इक सहारा जो उसे थाम ले जो उसे बचा ले________वह निराश होती है मज़बूरियों से कर समझोता ससुराल पहुँचती है_____नये नये चेहरे अगल ही मिज़ाज़ बात बात पे ताना उड़ाना मजाक____शहर से बिलकुल भिन्न था गांव वालों का स्वभाव______वह रोती थी बिलखती थी क़िस्मत को कोसा करती थी कहने को तो अपना था पति पर वो उससे भी डरती थी_____मान नसीब अपना वो चुपचाप सबका कहा करती थी रातों को चोरी से आँसू बहाया करती थी_______|||#बसयूँही #टूटी_फूटी_औरतें #क्रमशः

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1 comments:

Onkar said...

सही चित्र खींचा है आपने

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