सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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#बसयूँही

सदियों से वो
लिखती आई प्रेम
आंधी में तूफान में
बाढ़ में सैलाब में
लेकिन कभी
देख न पाई
वक़्त के थपेड़ों ने
उस स्याही को
कर दिया था फीका


वो फ़रेब खाती रही और मुस्काती रही वह थी प्रेम में वो बस यूँही उसे चाहती रही
पल बिता दिन बीतें
बिता महीनों साल वर्षों से अनदेखी का दिल को रहा मलाल
पत्थर बना दिल उसका
उसी को समझाए यही होता है अंजाम प्यार का, पगली तू क्यूँ नीर बहाये
कौन समझाए
इस पत्थर दिल को वेग उन तेज लहरों का चीर देता है सीना जो इन ऊँचे ऊँचे चट्टानों का
दर्द था, तकलीफ़ थी
ज़ख्म भी कुछ गहरा था संग जिसके उसको उम्र भर बस यूँही तन्हा गुजारना था
अनदेखी भी होनी थी इल्ज़ाम भी सहना था तिरस्कार की अग्नि में जलकर प्यार भी उसी से करना था___|||


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6 comments:

Sudha Devrani said...

बहुत खूब...

RAKESH KUMAR SRIVASTAVA 'RAHI' said...

आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/05/21.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

'एकलव्य' said...

अनदेखी भी होनी थी
इल्ज़ाम भी सहना था
तिरस्कार की अग्नि में जलकर
प्यार भी उसी से करना था___|||
सुन्दर अभिव्यक्ति ,अलंकृत शब्द विन्यास आभार। "एकलव्य"

Meena sharma said...

तिरस्कार की अग्नि में जलकर प्यार भी उसी से करना था....
स्त्री ऐसी ही होती है ! सुंदर अभिव्यक्ति

निभा said...

बहुत बहुत धन्यवाद आप सभी का स्नेह बनाये रखें

निभा said...

बहुत बहुत धन्यवाद आप सभी का स्नेह बनाये रखें

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