सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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अभिनय

नहीं जानती क्या लिखना है, बस आके बैठ गई हूँ अपने कमरे के इस कोने मे, मन को जितना शान्त करने की चेष्टा करती हूँ ये उतना ही बैचेन हुआ जाता है, जिंदगी नाटक सी लगने लगी है, कई दिनों से उस पात्र का अभिनय कर रही हूँ जिससे मेरे निजी जिवन का कोई तालमेल नही, बहुत कष्ट दायक है दूनिया को अपना वो रूप दिखाना जो आपमें लेश मात्र भी ना हो, क्या करू कैसे खूदको इतना मजबूत बनाऊ के मेरी भावनाओं का किसी को भनक तक ना लगे, हाँ मै डरती हूँ, मुझे डर लगता है उन लोगो से जो भावनाओं का सहारा ले कर जिंदगी को एक मज़ाक़ बना देते है, मुझे छुटकारा चाहिए अपने ज़ज्बातों से अपने कमज़ोर दिल से जो हर छोटी छोटी बातों से टुट जाता है, कैसे समझाऊ इस नासमझ दिल को, ये दूनिया है रंग मंच... यहाँ सिर्फ अभिनय़ चलता... तुम्हारे ज़ज्बातों का तुम्हारी भावनाओं के लिये यहाँ कोई जगह नहीं, कहाँ दफन करू मै तुम्हें.....  जहाँ से तुम कभी वापस ना सको... कुछ तो रहम करो, मै भी औरों की तरह जिना चाहती हूँ....  :(

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