कुछ सवाल जिनके जवाब तो होते है...
परन्तु किसी संकोच वश....
अकसर हम तक ही रह जातें हैं..
उनके जवाब...
यूंही तुम भी उस दिन...
मुझसे कर बैठे थे एक सवाल...
समझ नहीं आया कैसे जवाब दूँ..
या यूँ कहलो.. तुम्हें खो देने का डर...
मुझे रोक रहा था.. जवाब देने से....
लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं है..
ना डर.. ना ही कोई संकोच...
इसका ये मतलब भी कतई नहीं...
के मैने इनपे जित हासिल कर ली....
हकीक़त तो ये हैं.. मैं तुम्हें खो चूँकि हूँ..
भाग्य की विडंबना तो देखो....
जो मिला ही नहीं.. उसे खो बैठी....
हमारे बीच.. एक सहानुभूति का रिश्ता था..
जिस तरह तुमने मुझसे बात की.. आश्चर्य़ होगा
तुम्हें ये जान कर.. के मुझे भी तुमसे सहानुभूति
हो गई थी.. तुम्हें अकेला तन्हां छोड़ने की..
हिम्मत ना थी मुझमें.. साथ देने की कोशिश...
कब प्यार.. मोहब्बत के गहरे रंग से....
रंग गई पता ही नहीं चला...
यक़ीन मानों तुम उस वक़्त...
मुझे मुझ जैसे ही लगते थे..
इसलिये भी तुमसे प्रेम हो गया..
प्यार में वैसे भी होश किसको रहता हैं.....
जो मुझे रहता... मैं तो अपने पैरों की उन बेड़ियों...
को भी भुल गई... जो मुझे कभी तुम्हारे साथ...
चलने नहीं दे सकता... औऱ आज की सचाई...
तो यही है.. के तुम बहुत खास हो..
तुम्हारे मन में सबके लिये ही सहानुभूति हैं..
कोई इसे कुछ और समझ ले.. तो वो उसकी भुल हैं...
ये कुछ बातें कई बार तुमसे कहने की अथाह कोशिश की..
लेकिन.... तुम्हारे किमती वक्त से अपने लिये... अब...
चैन के दो पल चूरा भी तो नहीं पाती थी ....
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