सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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वो आख़री लम्हा......!!!!

वो आख़री लम्हा विदाई का तुम ओझल होते जा रहे थे मेरी नज़रों से और मैं मिटती जा रही थी तुम्हारे दिल से .............हृदय मेरा रो पड़ा था इस अहसास से.....जानती थी तुम कभी नहीं समझ पाओगे मेरे इस अहसास को इसलिए कभी चाह कर भी उस वक़्त तुम्हें रोक कर कह नही पाई...........जाते जाते जब एक बार तुमने मुझे मुड़कर भी नही देखा...भान हो गया था उसी वक़्त मुझे तुम्हें मुझे प्रेम नही....मन को मैंने समझा लिया था के यह तुम्हारी सचाई तुम्हें कभी न बताये.....सच कहूँ तो लालच आ गया था मेरे मन में तुम्हारे प्रति अपने दिल के उस मासूम निस्वार्थ प्रेम के लिए वही प्रेम जिसे तुमने जगाया
था............तुम्हें पाना तो कभी मुमकिन था ही नही लेकिन तुम्हारे कुछ पल साथ को तुमसे कुछ पल बात को मैं सचाई जानते हुए भी खोना नही चाहती थी..................इसलिए कभी कह नहीं पाई के मुझे मालूम है तुम्हें मुझसे प्रेम नही रहा मुझसे मिलने के बाद..........मैं तुम्हें दोष भी नहीं दे सकती क्यूंकि मैं जानती हूँ तुम्हारे मन में जो इस प्रेम को लेकर छवि थी उसमें तुम मुझे बिठा नही पाए................तुम जा चुके थे मेरी नज़रों से दूर और मैं तुम्हें सोचते हुए वही ज़र सी खड़ी रह गयी आँखों के आगे अँधेरा सा छा गया..........नियंत्रण खो रही थी टांगे मेरी... बेहद दुस्वार सा हो उठा था एक कदम भी चलना..........पर हर हाल में लौटना तो था ही मुझे जैसे तैसे उस टिकट काउंटर तक खुद को ही मानो घसीट कर लायी............इन हाथों ने जिनमें तुम्हारे हाथों की खुश्बू महक रही थी स्थिर होने का नाम ही नही ले रहें थे...........बड़ी मुश्किल से हाथों की कंपनों पे काबू पाने की ज़द्दोज़हद में पर्स से पैसे निकाल उस काउंटर पर रख पाई................उस काउंटर से आवाज़ आई कहा की टिकट.......समझ ही नहीं आया क्या जवाब दूँ भूल गयी थी कहा जाना है कुछ पल वही सोचती सी रह गयी.......उसने फिर पूछा......कहा की टिकट दूँ...मुझे नाम याद आ गया था लेकिन तभी अहसास हुआ मेरी जुबां भी मेरा साथ नही दे रही................किसी तरह लड़खराते जुबां से मंजिल का नाम ले पाईथी उस दिन ..................मेरे हाथों में टिकट था और मेरी आँखों में आंसू...........लोगों की भीड़ में बहोत अकेली तन्हा बैठी थी मैं अपने ही सवालों के साथ जिसका ज़वाब दिल जानता था फिर भी दिमाग सोच रहा था बार बार...!!!!!!#बसयूँही 

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3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भावप्रणव प्रस्तुति।

vj said...

पढ़ कर ऐसा लगा जैसे ये वाकिया नज़रों के सामने घटित हो रहा है..उम्दा

Unknown said...

मैं सिहर उठी इक पल बीते वक्त को शब्द-ब-शब्द उतरता देख।बहुत सुंदर।।

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