ख़ोया है चैन मैंने
खोई हैं खुशियाँ सारी
नेहा लगा के तोसे
पल पल हूँ मैं हारी
तेरे वास्ते जागी
सारी सारी रतियाँ रे
कहाँ गई वो तेरी
प्यार भरी बतियाँ रे
मारे हैं ताना सखियाँ
भर भर आये रे अँखियाँ
भूल हुई क्या मोसे
जो छोड़ दी कलाई रे
का से कहूँ~कैसे कहूँ रे
ग़म की दुनियाँ में
तन्हा तन्हा मरुँ रे
तेरे प्यार को साथी
जी के मैं मरुँ रे~~!!!
नेहा लगा के तोसे~~!!!
03:31 |
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8 comments:
वाह.. अद्भुत। बधाई निभा जी।
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार (07-04-2015) को "पब्लिक स्कूलों में क्रंदन करती हिन्दी" { चर्चा - 1940 } पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शुक्रिया राहुल जी आपको यहाँ देख़ ख़ुशी हुई~~!!!
धन्यवाद मयंक जी~स्थान देने हेतु आभार आपका~~!!!
शब्दजाल बुनने की कला में महारत हासिल है तुम्हें..
वरना स्वर व्यंजन तो हमने भी सीखे थे..
प्यारी रचना ...फॉन्ट जरा बड़ा कर लें (कृपया अन्यथा ना लें)
शुक्रिया दी~आपने बहुत बड़ी बात कह दी मैं इस क़ाबिल तो नही बस यूँही कोशिश करती रहती हूँ :)
धन्यवाद सुमन जी~आपको पसंद आई ये मेरे लिया बेहद ख़ुशी की बात है और फॉन्ट के बारे में बताने के लिए हृदय से आभार~ :)
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