रंज ओ ग़म से दूर
इक हसीं जहां का ख़्वाब लिए
होले होले पसर आती है रात
गहरी नींद की चाह लिए
रोती छटपटाती गुज़री जाती है सिसकती
पथराई आँखों को देखती टूटती बिख़रती
टुकड़ों में ख़ुदको देखती है बंटती~ऊफ़्फ़ ये
कोरे पन्नों पर लिखती जाती
दर्द भरे अनगिनत ज़ज़्बात
ऊफ़्फ़~ये स्याह गहरी काली रात~~!!!#बसयूँही
5 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-05-2015) को "चहकी कोयल बाग में" {चर्चा अंक - 1970} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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शुक्रिया सर ~~!!!
सुन्दर
सुन्दर
शुक्रिया अविनाश जी ...!!!
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