एक पत्ती थी उस डाल पे
हवा के झोंके संग लहराती थी
कभी इतराती कभी बलखाती
झूम झूम ख़ुशी से गाती थी____
मौसम बदला पतझड़ आया
डाल ने अपना धर्म निभाया
ज़मी पे पड़ी रही वो पत्ती
सुखती रही कुचली गयी
हवा के झोंकों संग फिर वो
भटकती रही भटकती रही_____
सूर्य का प्रचंड तेज़
पत्ती की शक्ति क्षीण हुई
आग की लपटों में वह
डाली की याद में जल गई
स्वाहा हुई_______
लौट आती है बाहार फ़िरसे
नई पत्तियों से शाख़े सज़के
ना करता शाख़ उस पत्ती को याद
जितनी किस्मत बस उतना साथ~!!!
5 comments:
बहुत भावपूर्ण रचना ...सादर
शुक्रिया मोहन जी~!!!
सर चर्चा मंच में शामिल करने हेतु आभार आपका~!!!
सच कहा
शुक्रिया सहमत होने के लिए~!!!
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