सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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एक खुबसूरत राह

एक राह.. जिसपे चलने का ख्वाब मुझे अकसर आने लगा. मैं चली जा रही हूँ.. राह की हर चींज मुसकान बिखेर रहीं हैं... लेकिन आँख खुलते ही डर जाती थी उस राह पे कदम रखने से.... हकिकत में ऐसा ना हुआ तो.. ये सोच मुझे बैचेन किये हुए था...    उस राह पे चलने का डर मुझमें शायद औरों से ज्यादा था..
लेकिन अब मुझे कोई डर नहीं...बहुत मुश्किल था मेरे लिये उस डर का सामना करना. लेकिन बिना सामना किये दिल को सच समझाना बहुत मुश्किल था.. औऱ मैं चल पड़ी उस राह.. बेहद खूबसूरत बेहद शान्त थी वो राह.. दिल लुभाने के लिये इक झलक ही काफी थी.. इस कदर खोई उस राह में के कुछ पल के लिये अपने डर को ही भूल गई..... के अचानक कुछ शब्द गूंज उठें कानों में... होश आया तो महसूस हुआ.. मेरे चलने से उस राह पे कुछ बैचेनी सी प्रतीत होने लगी. वहाँ का शान्त माहौल.. अशान्त वातावरण में बदलने लगा.. वहाँ की खुशहाली में जैसे मेरी नज़र सी लग गई.. मुझे वो राह बेहद पसन्द है.. लेकिन मैं इतनी स्वार्थी नहीं.. के अपनी खुशियों के आगे उस राह के खुशियों को नज़र अंदाज़ करू..... इसलिये वहीं रूक गई जहाँ से में उस राह की सारी खूबसूरती को दूर से जी भर देख सकूं... मुझे अहसास हुआ यक़ीन हुआ.. अपनी उन कमियों का जिसकी वजह से मैं उस राह पे चलने के लायक नहीं थी... दिल ने भी इस बात को दिल से मान लिया.. ये तभी मुमकिन हो पाया जब मैने इसपे चलने का फैसला लिया... मेरा डर सही है या गलत ..ये खुदको समझाके नही दिखाके यकिन दिलाना था..जिन चिजों को आप पसन्द करते हो.. वो खुशहाल रहें... इस से बढ़के  दूनिया में और कोई खुशीं नहीं.... ♥

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