सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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नज़्म में अपने इश्क को मुकम्मल कर जाऊँगी।।।।

यूँ तो आधा अधूरा सा रहा अफ़साना मेरे इश्क का
पर अपने नज़्म में मैं इसे मुकम्मल कर जाऊँगी।।।
मेरी मोहब्बत को नज़रअंदाज़ करने वाले दिलवर सुन
ख़ुदा भी रश्क करेगा तुझसे इतनी शिद्दत से मैं तुझे चाहूँगी
मेरी आँखों को तूं पढ़ नही पाया तो क्या, गम नही
बंद आँखों से पढ़ेगा इक दिन वो कहानी मैं लिख जाऊँगी
नज़्म में अपने इश्क को मैं मुकम्मल कर जाऊँगी
तूं देखे या ना देखे मुझे, तेरी नज़रों में मैं समा जाऊँगी
जिस ओर देखेगा तू प्यार से मैं ही वहाँ नज़र आऊँगी
मोहब्बत में अपनी मैं एक दिन वो असर ले आऊँगी
राख़ बन जाऊँगी मैं धुआं बन जाऊँगी
मोहब्बत में अपनी मैं फ़ना हो जाऊँगी
नज़्म में अपने इश्क को
मैं मुकम्मल कर जाऊँगी

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