न डरती मैं तूफ़ान से
न थकती मैं निर्माण से
नित्य नूतन सृजन को तत्पर्य
न टूटती मैं लोह पाषाण से
औरत हूँ मैं मुझे मोह नही
अपने प्राण से~
मैंने पाया है आँसू
बदले में हँसी के
जिया है दर्द मैंने
खुशियों को बाँट के
हक़ नही मुझे उफ़्फ़
करने की
इक औऱत हूँ मैं
मुझे आदत है
सहने की~
प्यार से तो कभी
तक़रार से
मैंने संवारा है ख़ुदको
अपनी ही जीत
और हार से
औरत हूँ मैं
मैंने पाया है ख़ुदको
ख़ुद से ही हार के~
हर मौड़ से गुज़री मैं
अनगिनत इम्तेहां से
छलती रही ख़ुदको कभी
कभी छलती रही जहां से,
औरत हूँ मैं
हँसती रही मैं शान से~!!!
औरत हूँ मैं_____
07:11 |
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8 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (11-07-2015) को "वक्त बचा है कम, कुछ बोल लेना चाहिए" (चर्चा अंक-2033) (चर्चा अंक- 2033) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शुक्रिया सर चर्चा में शामिल करने हेतु आभार आपका~!!!
बहुत सुन्दर चित्रांकन
तभी औरत को पृथ्वी जैसी सहनशील कहा गया है
जी सही कहा आपने~शुक्रिया आपका~!!!
नारी मन की विशालता से सभी वाकिफ हते हैं ... कबूल करें य नहीं ...
लाजवाब रचना ...
आभार आपका~!!!
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति निभा..
शुक्रिया दी :)
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