सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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इक रात~!!!

चुपके से इक रोज़
रात अफ़साना नया
सुना गया
ख़ामोशी में लिपटा
एक राज़ अनोखा
मेरे दामन से बाँध गया

रौशन थे चाँद सितारे
पुरवाइयों की अठखेली
स्वर्णआभा से दमक रहा था
मुख मंडल उस देव तुल्य की
भाव विभोर थी प्रकृति सारी
झूम रहा था क़ायनात
चरण कमल प्रिय के देख़
मन गा उठा मधुर प्रेम राग़

हौले हौले ज्यूँ क़रीब आएं
आत्मा में समाते गएँ
वो दिव्य लोक के देव पुरुष से
धीमे धीमे मंद मंद मुस्काएं

वह चंद्रबदन तेज़ सूर्य
कृपा सरस्वती जहाँ बिराज़े
जो चंचल मन शितल जन
हर मन को सदैव सुहाए

वो रात अनोखी

अहसास अनोखा

इक रंग नया

ज़ीवन को मेरे

लगा गया

चाँद उतरा जो

दिल के ज़मी पे

रूह में मेरे समा गया~!!!#बसयूँही

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3 comments:

Onkar said...

उम्दा रचना

निभा said...

शुक्रिया आपका

निभा said...

चर्चामंच में शामिल करने के लिए आभार आपका आदरणीय शास्त्री जी~!!!

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