सत्य प्रेम के जो हैं रूप उन्हीं से छाँव.. उन्हीं से धुप. Powered by Blogger.
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शब्दों के तुम कारीगर__|||


जो हो भूल कोई मुझसे प्रिये
तुम उन्हें अनदेखा किया करो
न मुँह मोड़ो यूँ छोड़ मुझे तुम
मेरे प्रेम को महसूस किया करो

हो शब्दों के तुम कारीग़र
मज़दूरी नित् किया करो
हूँ मैं ग़र कविता तेरी
तुम मेरा विस्तार करो~

तोड़ो मरोड़ो शब्दों को
जज़्बातों से मुझे जलाओ
अहसासों का मरहम लगा
एक रूप नया तुम दे जाओ~

प्यार से तराशो मुझे तुम
कभी लबों से गुनगुनाओ
महक उठे हर लफ़्ज़ मेरे
मुझे इत्र इश्क़ का लगा जाओ~

छंदों से मेरा श्रृंगार करो
अंलकार से मुझे सजाओ
गीत बना इश्क का मुझे 
होंठो से अपने मुझे लगाओ~

मैं बनके रचना तेरी
मन ही मन इठलाऊँ
कुछ ऐसा गढ़ रचनाकार मुझे
की मैं लबों पर तेरे छा मुस्काऊँ~|||


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2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (12-01-2017) को "अफ़साने और भी हैं" (चर्चा अंक-2579) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

निभा said...

सादर आभार 😊

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